दिनांक २२-१२-११ से दिनांक २४-१२-११ तक श्री दिगम्बर जैन शीतल्तीर्थ रतलाम म० प्र० में आचार्य सन्मति सागरजी के चतुर्थ पत्ताचार्य श्री योगीन्द्रसगार्जी के सानिध्य में मनाया गया. दी २२-१२-११ को प० पू० वात्सल्य रत्नाकर आचार्य विमल सागरजी का १७व समाधीदिवस पर प्रातः आचार्यश्री की प्रतिमा का पूजन अभिषेक किया गया. दोपहर की सभा को संबोधित करते हूए चतुर्थ पत्ताचार्य श्री योगीन्द्र सागरजी ने कहा की वर्तमान में आचार्य विमल सागरजी जैसा निमित्त ज्ञानी हो नहीं सकता है, क्योंकि उनकीभविष्यवाणी का में स्वयं उदहारण हूँ . आचार्य विमल सागर जी महाराज ने मेरी २७ दिन की आयो में ही घोषणा कर दी थी की ये बालक घर में नहीं रहेगा संत बनेगा, ब्राह्मन कुल में जन्म होने से किसी को कल्पना भी नहीं थी की में गौतम गणधर की परम्परा का अनुसरण करूगा. उन्हों ने अपने जीवन कई लोगो का उपकार किया एवं लोगो को जैन धर्मं में श्रधान मजबूत किया . में ऐसे आचार्यशी विमल सागरजी के चरणों में वंदन कर स्वयं को धन्य समझाता हूँ . दि .२३-१२-११ को रिषिमंडल विधान किया गया जिसका लाभ श्री राजेश मेहता खान्दुकोलोनी बांसवाडा राज. परिवार ने लिया .दि .२४-१२-११ को प्रातः आचार्य श्री सन्मति सागरजी की प्रतिमा का पंचामृत अभिषेक किया गया .१०८ कलशो की दुग्ध धरा की गयी. दोपहर की सभा में आचार्य सन्मति सागरजी की प्रतिमा के समक्ष दीप प्रज्ज्वलन श्री विजय ओरा जावरा,श्री तेजकरण मालवीय,श्री कमलजी हथियावत. खान्दू कालोनी बांसवाडा आदि ने किया. पुष्पार्चन श्री अभय जैन उज्जैन,श्री दीपक गोधा ने किया. सभा का मंगलाचरण सुप्रसिद्ध कवि श्री उत्सव जैन नौगामा राज. ने किया . सभा को श्री तनसुख राय गडिया रतलाम,श्री अनिल पापदीवाल रतलाम,मनोज जैन भिंड, अभय जैन एवं मुनि यद्वेंद्रनाथ मुनि यतीन्द्र नाथ आदि ने संबोधित किया. अंत में चतुर्थ पत्ताचार्य योगीन्द्र सागर जी ने संबोधित करते हुए समाधी के अर्थ को बताते हुए कहा की सम#धी का अर्थ है की जिसकी बुद्धि सम है . जो सभी परीस्थितियो में सम रहे . गृहस्थ को शरीर छोड़ता है जबकि साधू शरीर को छोड़ता है. जब साधू को लगता है की शरीर अब धर्म साधन करने योग्य नहीं रह गया है. तो वह शरीर का परित्याग करने को तैयार हो जाता है . मेरे गुरुदेव आचार्य श्री सन्मति सागरजी महाराज ने १२ वर्ष की समाधी ले ली थी किन्तु १२ वर्ष पुरे होने के १२ दिन पहले ही शरीर को छोड़ दिया . वैसे तो संत का समाधी मरण महोत्सव का कारन होता है. किन्तु हमारे गुरु का शरीर परित्याग करना हमारे लिए अपूर्णीय क्षति है . जब तक ऊपर मस्तक पर गुरु का आशीर्वाद होता है एक निश्चिंतता रहती है. हमे जिस तरह गुरु ने मोक्ष मार्ग का पथिक बने है वैसे ही हमे कभी किसी भी मार्गदर्शन की आवश्यकता होगी तो गुरुदेव से ले लेंगे. किन्तो अब तो जिम्मेदारी भी बढ गई है. में उस महान तपस्वी आत्मा को आचार्य अवस्था में ध्यान में रख कर सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति , समाधी भक्ति सहित नमन करता हूँ.में आचार्य श्री का ऋणी हूँ की उन्होंने मुझे जैनेश्वरी दीक्षा देकर मुझे इस मार्ग पर लगाया है .
प पू मुनिकुंजर आचार्य १०८ श्री आदिसागरजी म सा (अंकलीकर) परंपरा के तृतीय पट्टाधीश प पू महातपोमार्तंड आचार्य १०८ श्री सन्मतिसागरजी म सा के पट्टाधीश प पू प्रज्ञा पुरुषोत्तम सिद्धांत रत्नाकार १०८ आचार्य श्री योगीन्द्रसागर जी म सा की प्रेरणा से दिगंबर जैनाचार्य शीतलकीर्ति महाराज सा के नाम को समर्पित कर "शीतलतीर्थ" रतलाम के बाँसवाड़ा रोड पर निर्माण गया है । दिगंबर जैन शीतलतीर्थ अधिष्ठात्री डॉ सविता जैन ०९४२५३५५७४१
प्रज्ञा पुरुषोत्तम श्री १०८ बालाचार्य योगीन्द्रसागरजी महाराज सा
मंगलवार, 27 दिसंबर 2011
शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011
गुरुवार, 15 दिसंबर 2011
जीवन में निश्चय एवं व्यवहार दोनों जरुरी है .
जिस तरह कोई भी गाड़ी एक पहिये से नहीं चल सकती है, उसे चलने के लिए दोनों पहिये कि आवश्यकता होती है , ठीक उसी तरह धर्म रूपी गाड़ी भी निश्चय एवं व्यवहार दोनों मार्गो कि आवश्यकता होती है। परमात्मा की प्राप्ति के लिए दोनों की आवश्यकता होती है। केवल निश्चय या केवल व्यवहार से परम सत्ता को प्राप्त नहीं कर सकते है । अतएव हमे सम्यक रूप से दोनों मार्ग अपनाने चाहिए .जहाँ चाकू की जरुरत है वहा चाकू एवं जहाँ सुई की जरुरत वहां सुई का प्रयोग ही करना चाहिए । गृहस्थ धर्म का पालन करते हुऐ। समय अनुसार प्राथमिकता तय करना चाहिए.
गुरुवार, 8 दिसंबर 2011
मन को मारो मत मन को मोड़ो
दि।। ४-११-११ को चतुर्थ पटटाचार्य श्री योगिन्द्रसगार्जी महाराज ने शीतलतीथॅ पर आयोजित धर्मसभा में कहा कि मानव को अपने मन को मारने कि जगह मन को मोड़ने का प्रयास करना चाहिए क्योकि हम जिस चीज से दूर भागना चाहते है वह चीज उतनी ही हमारे मन में अपना घर बनाती जाती है। हमें मन को दुसरे काम में लगाकर मन की दिशा को बदलने का प्रयास करना चाहिए। यदिहम परछाई को पकड़ने की कोशिश करतेहै तो वह आगे चलती जाती है, किन्तू यदि हम पीठ कर लेते है तो वही परछाई हमारे पीछे दौड़ने लगती है। वेसे ही मन कि आदत है , आप जितना इसके अनुसार चलेगे वह भटकाएगा यदि किसी और काम में लगा दिया तो यह उस काम लग जायेगा । इसलिए इसे किसी सकारात्मक काम मे लगा देना चाहिए । यदि मन ही रहेगा तो भगवान का भजन कैसे करेंगे । मन को सुमन बनाये कुमां नहीं। कार्यक्रम के प्रारंभ में पुखराज सेठी जावरा ने मंगलाचरण कर गुरु वंदना की। मनोज जैन ने स्वागत भाषण दिया । कार्यक्रम का सशक्त सञ्चालन डॉ सविता जैन ने किया।
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