प्रज्ञा पुरुषोत्तम श्री १०८ बालाचार्य योगीन्द्रसागरजी महाराज सा

प्रज्ञा  पुरुषोत्तम श्री १०८ बालाचार्य योगीन्द्रसागरजी महाराज सा

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

शीतलता लब्ध कराता "शीतलधाम"

शीतल शब्द ठंडक की अनुभूति कराता एक सक्षम शब्द है। सारे समाज से समस्त उपद्रव जिस जगह जाकर शांत हो जाए ऐसे स्थान का नाम आज से ८०० वर्ष पूर्व हुए दिगंबर जैनाचार्य शीतलकीर्ति महाराज सा के नाम को समर्पित कर "शीतलधाम" रखा गया गया है । प पू सिद्धांत रत्नाकर गुरुदेव बालाचार्य १०८ श्री योगीन्द्र सागर जी महाराज सा ने अपने गुरुदेव कि स्मृति में यह स्थान समस्त समाज के वृद्ध एवं अशक्त साधुजनों कि सेवा हेतु समर्पित किए जाने का प्रायोजन किया है ।
शीतल तीर्थ के निर्माण का परम उद्देश्य प्राप्त होने सम्बन्धी किस्सा प्रायः बलाच्री जी के श्री मुख से सुना जाता रहा है कि किस प्रकार बदरीनाथ धाम के रास्ते पर हुए अनुभव ने उनका मानस बनाया ताकि वृद्ध संतजनों कीसेवा के निमित्त इस तरह की व्यवस्था जिसमे साम्प्रदाय निरपेक्षता का अनिवार्य तत्व रहे और अब यही कल्पना साकार स्वरुप में परिणति प्राप्त कर रही है "शीतलधाम" के स्वरुप में। समस्त भारतीय समाज को एक सूत्र में पिरोने का भाव आज शीतल तीर्थ की शीतलता है ।
समस्त भारत में रह रहे विभिन्न धर्म , पन्थ, सम्प्रदाय एकजूट रहे इसका मूल मन्त्र " सर्वे भवन्तु सुखिनः , सर्वे सन्तु निरामयः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु , माँ कश्चित् दुःख भाग भवेत् " की भावना में निहित है । अनुभवों की कसौटी पर कई विग्रहों से सामना कर अपने आप को ढाल चुके बालाचार्य जी के जीवन खण्डों का विस्तार से भ्रमण किया जाए तो वे स्वयं "परहित सरस धरम नहीं भाई " की साक्षात अनुकृति हैं । बाल्यकाल से मिला पोषण "संस्कृति की उद्घोषणा "प्रतीत होती है, प्राथमिक शिक्षा के दौर में डगमगाते क़दमों से चलनेवाला बालक आज का साहित्य समृद्ध आचार्य है और उनसे बात करने पर वे इसे माँ का आशीर्वाद का सहज उत्तर देते हैं। इस माँ शब्द की थाह में जाकर शारदा, सरस्वती और वाणी का सहज अनुभव किया जा सकता है । अवसाद का गहन दौर जीवन को प्रताड़ित कर चुका और अनुभव की कटुता ने कई सबक सिखाए फिर तप के जो मूर्ति प्रकट हुई वह बालाचार्य के रूप में हमारे समक्ष है ।
सार्वजनिक, सर्वधर्म,साम्प्रदाय निरपेक्षता जैसे शब्दों को समाज की एकजुटाता को परिभाषित करने के लिए प्रायः प्रयुक्त किया जाता रहा है तथापि कर्म कि साकार कृति में प्रस्तुति का चिंतन और मानस के केंद्र बिंदु का उद्भव शीतल तीर्थ धाम के रूप में बालाचार्य जी के मनो मस्तिष्क से उजागर हुआ है । यूँ तो साईं बाबा स्वयं सद्भावना के साक्षात सनातन सूर्य हैं । "नेपाली बाबा " के अनुसार कोख से जन्म लेने वाला प्रत्येक प्राणी "वसुधैव कुटुम्बकम " कि घोषणा और हिन्दू है । कुछ इसी प्रकार कि आवृत्ति को मुनि समुदाय से प्रकट करने का भाव शीतल तीर्थ के रूप में परिभाषित है। आवृत्ति का यह खंड उर्ध्व दिशा में अग्रसर हो रहा है । जड़ता का तरलता में परिणत होना भी इसी के साथ अनुभूत होने लगा है। विचारों कि जड़ता से ग्रस्त अवधारणा यहाँ जिस ठंडी लहर को पाकर द्रवित हो रही है वह अनुभव भी इस पावन धरा पर होने लगता है।

बचपन में पढ़ी और आज तक मनो मस्तिष्क में अविस्मृत पड़ी सूक्ति ... अर्थात "यदि कोई अपने अन्तः करण पर मजबूती से खडा रहे तो सारी दुनिया उसके नज़दीक होगी। का चैतन्य अनुभव भी बालाचार्य जी हैं ही परन्तु शीतल तीर्थ का शिल्प भी आकर्षण के इसी केंद्र का बिंदु बन स्थापित होगा । विश्व एकात्म का धरातल विचारों से निकल कर मूर्त रूप में बदलने लगा है पर आज भी यह दिगंबर अतिशय क्षेत्र का बोध कराने का उपक्रम दर्शित होता है इसकी पड़ताल में हूँ ......

गुरुदेव बालाचार्य जी का कथन है कि " यह स्थान मुझे भी स्वभावगत शीतलता देने में कामयाब हुआ है " लोगों को भी हमने यही कहते सूना कि स्वभाव में बदलाव हम महसूस करते हैं । जहां नाम के स्वरुप शीतलता लब्ध है एसा स्थान निश्चित ही आस्था का केंद्र बनेगा और हम सभी रतलामवासी इसकी ध्वनि और जयघोष बनेंगे .....

राजेश घोटीकर

६/१६ एल आई जी "बी" जवाहर नगर रतलाम (म प्र)

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